अब अशुद्धि के लिए मैं शुद्ध होना चाहता हूँ,अब कुबुद्धी को लिए मैं बुद्ध होना चाहता हूँ.
चाहता हूँ इस जगत में शांति चारों ओर हो,
इस जगत के प्रेम पर मैं क्रुद्ध होना चाहता हूँ.
चाहता हूँ तोड़ देना सत्य की सारी दीवारें,
चाहता हूँ मोड़ देना शांति की सारी गुहारें.
चाहता हूँ इस धरा पर द्वेष फूले और फले,
चाहता हूँ इस जगत के हर हृदय में छल पले.
मैं नहीं रावण की तुम आओ और मुझको मार दो,
मैं नहीं वह कंस जिसकी बाँह तुम उखाड़ दो.
मैं जगत का हूँ अधिष्ठाता मुझे पहचान लो,
हर हृदय में- मैं बसा हूँ बात तुम ये जान लो.
अब तुम्हारे भक्त भी मेरी पकड़ में आ गए हैं,
अब तुम्हारे संतजन बेहद अकड़ में आ गए हैं.
मारना है मुझको तो, पहले इन्हें तुम मार दो,
युद्ध करना चाहो तो, पहले इन्हीं से रार लो.
ये तुम्हारे भक्त ही अब घुर विरोधी हो गए हैं,
ये तुम्हारे संतजन अब विकट क्रोधी हो गए है.
मैं नहीं बस का तुम्हारे राम,कृष्ण और बुद्ध का,
मैं बनूँगा नाश का कारण-तुम्हारे युद्ध का.
अब नहीं मैं ग़लतियाँ वैसी करूँ जो कर चुका,
रावण बड़ा ही वीर था वो कब का छल से मर चुका.
तुमने मारा कंस को कुश्ती में सबके सामने,
मैं करूँगा हत तुम्हें बस्ती में सबके सामने.
कंस- रावण- दुर्योधन तुमको नहीं पहचानते थे,
वे निरे ही मूर्ख थे बस ज़िद पकड़ना जानते थे.
मैं नहीं ऐसा जो छोटी बात पर अड़ जाऊँगा,
मैं बड़ा होशियार ख़ोटी बात कर बढ़ जाऊँगा.
अब नहीं मैं जीतता, दुनिया किसी भी देश को,
अब हड़प लेता हूँ मैं, इन मानवों के वेश को.
मैंने सुना था तुम इन्हीं की देह में हो वास करते,
धर्म, कर्म, पाठ-पूजा और तुम उपवास करते.
तुम इन्हीं की आत्मा तन मन सहारे बढ़ रहे थे,
तुम इन्हीं को तारने मुझसे भी आकर लड़ रहे थे.
अब मनुज की आत्मा और मन में मेरा वास है.
अब मनुज के तन का हर इक रोम मेरा दास है.
काटना चाहो मुझे तो पहले इनको काट दो,
नष्ट करना है मुझे तो पहले इनका नाश हो.
तुम बहुत ही सत्यवादी,
धर्मरक्षक, शिष्ट थे,
इस कथित मानव की आशा, तुम ही केवल इष्ट थे.
अब बचो अपने ही भक्तों से, सम्हा
लो जान को,
बन सके तो तुम बचा लो अपने गौरव- मान को.
अब नहीं मैं- रूप धरके, सज-सँवर के घूमता हूँ,
अब नहीं मैं छल कपट को सर पे रख के घूमता हूँ.
अब नहीं हैं निंदनीय चोरी डकैती और हरण,
अब हुए अभिनंदनीय सब झूठ हत्या और दमन.
मैं कलि हूँ- आचरण मेरे तुरत धारण करो,
अन्यथा अपकीर्ति कुंठा के उचित कारण बनो
चाहता हूँ इस जगत में शांति चारों ओर हो,
इस जगत के प्रेम पर मैं क्रुद्ध होना चाहता हूँ.
चाहता हूँ तोड़ देना सत्य की सारी दीवारें,
चाहता हूँ मोड़ देना शांति की सारी गुहारें.
चाहता हूँ इस धरा पर द्वेष फूले और फले,
चाहता हूँ इस जगत के हर हृदय में छल पले.
मैं नहीं रावण की तुम आओ और मुझको मार दो,
मैं नहीं वह कंस जिसकी बाँह तुम उखाड़ दो.
मैं जगत का हूँ अधिष्ठाता मुझे पहचान लो,
हर हृदय में- मैं बसा हूँ बात तुम ये जान लो.
अब तुम्हारे भक्त भी मेरी पकड़ में आ गए हैं,
अब तुम्हारे संतजन बेहद अकड़ में आ गए हैं.
मारना है मुझको तो, पहले इन्हें तुम मार दो,
युद्ध करना चाहो तो, पहले इन्हीं से रार लो.
ये तुम्हारे भक्त ही अब घुर विरोधी हो गए हैं,
ये तुम्हारे संतजन अब विकट क्रोधी हो गए है.
मैं नहीं बस का तुम्हारे राम,कृष्ण और बुद्ध का,
मैं बनूँगा नाश का कारण-तुम्हारे युद्ध का.
अब नहीं मैं ग़लतियाँ वैसी करूँ जो कर चुका,
रावण बड़ा ही वीर था वो कब का छल से मर चुका.
तुमने मारा कंस को कुश्ती में सबके सामने,
मैं करूँगा हत तुम्हें बस्ती में सबके सामने.
कंस- रावण- दुर्योधन तुमको नहीं पहचानते थे,
वे निरे ही मूर्ख थे बस ज़िद पकड़ना जानते थे.
मैं नहीं ऐसा जो छोटी बात पर अड़ जाऊँगा,
मैं बड़ा होशियार ख़ोटी बात कर बढ़ जाऊँगा.
अब नहीं मैं जीतता, दुनिया किसी भी देश को,
अब हड़प लेता हूँ मैं, इन मानवों के वेश को.
मैंने सुना था तुम इन्हीं की देह में हो वास करते,
धर्म, कर्म, पाठ-पूजा और तुम उपवास करते.
तुम इन्हीं की आत्मा तन मन सहारे बढ़ रहे थे,
तुम इन्हीं को तारने मुझसे भी आकर लड़ रहे थे.
अब मनुज की आत्मा और मन में मेरा वास है.
अब मनुज के तन का हर इक रोम मेरा दास है.
काटना चाहो मुझे तो पहले इनको काट दो,
नष्ट करना है मुझे तो पहले इनका नाश हो.
तुम बहुत ही सत्यवादी,
धर्मरक्षक, शिष्ट थे,
इस कथित मानव की आशा, तुम ही केवल इष्ट थे.
अब बचो अपने ही भक्तों से, सम्हा
लो जान को,
बन सके तो तुम बचा लो अपने गौरव- मान को.
अब नहीं मैं- रूप धरके, सज-सँवर के घूमता हूँ,
अब नहीं मैं छल कपट को सर पे रख के घूमता हूँ.
अब नहीं हैं निंदनीय चोरी डकैती और हरण,
अब हुए अभिनंदनीय सब झूठ हत्या और दमन.
मैं कलि हूँ- आचरण मेरे तुरत धारण करो,
अन्यथा अपकीर्ति कुंठा के उचित कारण बनो
This is the first half can you please update it with the second half of the poem
ReplyDeletehttps://www.youtube.com/watch?v=vBZDlCly0iQ&t=12s
DeletePlese update second part
ReplyDeletePlease update second part
ReplyDeleteBhai please update second part
ReplyDeletehttps://fb.watch/6lIUfGyVug/
ReplyDeleteमै बनूँगा तुम्हारे नाश का कारण युद्ध का।
ReplyDeleteअब नहीं गलतिया में वैसी करू जो कर चुका।
रावण बड़ा ही वीर था वो कब का छल से मर चुका।
तुमने मारा कंश को कुश्ती में सब के सामने।
मै करूंगा हत तुम्हे बस्ती में सब के सामने।
कंश , रावण, दुर्योधन तुमको नहीं पहचानते थे।
वे निरहे मुर्ख थे बस जिद्द पकड़ना जानते थे।
मै नहीं ऐसा की छोटी बात पर अड़ जाऊंगा।
मै बड़ा होशियार खोटी बात कर बढ़ जाऊंगा।
अब मै नहीं जीतता दुनिया किसी भी देश को।
अब मै हड़प लेता इन मानवो के भेष को।
मेने सुना था तुम इन्ही की देह में हो वाश करते।
धर्म कर्म पाठ पूजा और तुम उपवास करते।
तुम इन्ही की आत्मा तन मन सहारे बढ़ रहे थे।
और तुम इन्ही को तारने मुझ से भी आकर लड़ रहे थे।
अब मनुज की आत्मा और मन में मेरा ही वाश है।
अब मनुज के तन का हर रोम मेरा दास है।
काटना चाहो मुझे तो पहले इन को काट दो।
और नष्ट करना है मुझे तो पहले इन का नाश हो।
तुम बहुत ही सत्यवादी धर्म रक्षक श्रेठ थे।
Ashutosh Rana ki Hindi kavita “kalyug tu ek kalpana hai”
इस कथित मानव की आशा तुम ही केवल इष्ट थे।
अब बचो अपने ही भक्तो से सभलो जान को।
और बन सके तो बचा लो अपने ही गौरव मान को।
अब नहीं मै रूप धर के सज सवर के घूमता हूँ।
अब नहीं मै छल कपट को सर पर रख के घूमता हूँ।
अब नहीं निंदनीय चोरी डकैती और आरणय।
अब हुए अभिनदनीय झूठ, हत्या और दमन।
मै कलि हूँ आचरण मेरे तुरित धारण करो।
अन्यथा अब कीर्ति कुंठा के उचित कारण बनो ।
महा मौन का मुखर घोष
तुम बहुत बोले में चुप चाप सुनता रहा।
तेरे ह्रदय की वेदना मैं मन ही मन गुणता रहा।
है बहुत सा क्रोध तेरे मन में सत्य के वास्ते।
चाहता तू बंद करना है सभी के रास्ते।
मुझ को चुनौती देके तू भगवान होना चाहता है।
अज्ञान का पुतला है तू पर ज्ञान होना चाहता है।
तू समय का मात्र प्रतिवाद और विवाद है।
तू स्वयं ही ब्रह्म और उस का नाद होना चाहता है।
तू विकट भीषण हलाहल है समय की चाल का।
तू स्वयं अब विश्व का गोपाल होना चाहता है।
तू स्वयं को कंश रावण से भी उत्तम मानता है।
तू स्वयं को विकट शक्ति शाली योद्धा जानता है।
तू नहीं कुछ भी कलि इस सत्य को तू जान ले।
और कुछ भी नहीं है वश में तेरे बात मेरी मान ले।
आशुतोष राणा की हिंदी कविता-कलयुग तू एक कल्पना है
जो भी तू बीत गया ऐसा कल है या आने वाले कल छल।
मै वर्तमान का महाराग, मै सदा उपस्थित पुलकित पल।
तू बीते कल की ग्लानि है या आने वाली चिंता है।
मै वर्तमान आनंदित छन , ये विश्व मुझी में खिलता है।
तू कल की बाते करता है, मैं कल्कि बन के आता हूँ।
मै तेरे कल की बातो को ,मैं कल्कि आज मिटाता हूँ।
तू कलि कपट का ताला है, मैं कल्कि उस की ताली हूँ।
तू शंका की महाधुंध, मैं समाधान की लाली हूँ।
कल का मतलब जो बीत गया, कल का मतलब जो आएगा
कल का मतलब है जो मशीन, कल जो वो दुख पहुचायेगा।
कल का मतलब जो ग्लानि है ,कल का मतलब जो चिंता है।
कल का मतलब जो पास नहीं , कल कभी किसी को मिलता है।
कल तो बस एक खुमारी है, कल बीत रही बीमारी है।
कल मनुज ह्रदय की प्रत्यासा, कल तो उसकी बेकारी है।
कल वो जिस का अस्तित्व नहीं, कल वो जिस का व्यक्तित्व नहीं।
कलयुग तो एक कल्पना है, इसमें जीवन का सत्य नहीं।
कलि अभी तू कच्चा है, तू वीर नहीं बस बच्चा है।
चल तुझ को मै आज बताता हूँ विश्व रूप दिखलाता हूँ।
मैं सत्य सनातन आदी पुरुष, मैं सत्य सनातन शक्ति हूँ।
आशुतोष राणा की हिंदी कविता-कलयुग तू एक कल्पना है
मै अखिल विश्व की श्रद्धा हूँ , मै मनुज हृदय की भक्ति हूँ
जब सत्य जागता है मुझ मै, मै सतयुग नाम धराता हूँ।
जब राम प्रकट हो जाते है , मै त्रेता युग कहलाता हूँ
जब न्याय – धर्म की इच्छा हो, द्वापर युग हो जाता हूँ।
जब काम, क्रोध, मद , लोभ उठे , तब कलि काल कहलाता हूँ
आनंद मगन जब होता हूँ, शिव चंगु कहलाता हूँ।
जब प्रलय तांडव नृत्य करू, तब महाकाल हो जाता हूँ
मै ही महादेव की डमरू, मै ही वंशीधर का वंशी ।
और में ही परशुराम का फरसा, में ही श्री राम का बाण
तू रावण का कोलाहल है, और कंश का हाहाकार
में सृष्टि का विजय नाद हूँ और मनुज हृदय की जय जयकार।
में भी अनंग, तू भी अनंग
तू संग संग , में अंग अंग
तू है अरूप, में दिव्य रूप
plz send second part bro i need it i want lyrics
Deleteइसके आगे भी सेंड करें
Deleteतु कल है कपट का है कुरूप
Deleteतु खण्ड खण्ड मैं हूँ अखण्ड, मैं शान्तिरूप मैं हूँ प्रचण्ड
मैं ही सकार, मैं ही नकार, मैं धुआंधार, मैं ही मकार
मैं ही पुकार, मैं चीत्कार, मैं नमस्कार, मैं चमत्कार
बैरी का बैर, प्रेमी की प्रीत, निर्बल का मान, मैं उसकी जीत
मैं ही हूँ ध्यान, मैं ही अजान, ये आन-बान सारा जहान
मैं ही खटपट, मैं ही झटपट, मैं ही मंदिर मस्जिद का पट
मैं ही इस घट, मैं ही उस घट, मैं ही पनिहारिन और पनघट
मैं ही अटकन, मैं ही भटकन, मैं ही इस जीवन की चटकन
मैं अर्थवान, मैं धर्मवान, मैं मोक्षवान, मैं कर्मवान
मैं ज्ञानवान, विज्ञानवान, मैं दयावान, मैं कृपा निधान
कर्म भी मै हूँ, मर्म भी मै हूँ, जीवन का सब धर्म भी मैं हूँ
जीवन के इस पार भी मैं हूँ, जीवन के उस पार भी मैं हूँ
जीवन का उद्देश्य भी मैं हूँ, जीवन का उपकार भी मैं हूँ
आह भी मैं हूँ, वाह भी मैं हूँ, इस जीवन की चाह भी मैं हूँ
तन भी मैं हूँ, मन भी मैं हूँ, इस जीवन का धन भी मैं हूँ
आन भी मैं हूँ, मान भी मैं हूँ, इस जीवन की शान भी मैं हूँ
ज्ञान भी मैं हूँ, दान भी मैं हूँ, जीवन का अभिमान भी मैं हूँ
जीत भी मैं हूँ, हार भी मैं हूँ, इस जीवन का सार भी मैं हूँ
सन्त भी मैं हूँ, अंत भी मैं हूँ, आदि और अनंत भी मैं हूँ
भूख प्यास और आस भी मैं हूँ, जीवन का विश्वास भी मैं हूँ
तु पार न मुझसे पायेगा, तु तनिक नहीं टिक पायेगा
तु सत्य धर्म के पैरों से, भूमि पर कुचला जायेगा
यह देख कलि का दिल डोला, यह देख कलि विचलित बोला
(कलियुग जिसे अब अपनी वस्तुस्थिति का अनुमान हो गया है, परब्रह्म से विनती भरे स्वर में कहता है।)
मैं धम्म धम्माधम अधम नीच, मैं पड़ा हुआ कीचड़ के बीच
मैं विकट हठी मिथ्याचारी, मैं पतित पुरातन व्यभिचारी
हे दयावान तुम पाप हरो, मेरे कसूर को माफ करो
और अंतस की कालिख को हे स्वामी तुम धीरे धीरे साफ करो
(।।समाप्त।।)
Very nice
ReplyDeleteThank you is poetry ke liye
I am speechless
ReplyDeleteThis porm is mind-blowing ...
Thanku Ashutosh sir 🙏
I am speechless
ReplyDeleteThis poem is mind-blowing ...
Thanku Ashutosh sir 🙏
Waaaahhh ashutosh ji waah
ReplyDeleteबहुत-बहुत सुंदर लिखा है सर...👌🙏
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